Samrat ashok ke abhilekh: अफगानिस्तान, हिंदुकुश, बलूचिस्तान, मकरान, सिंध, कच्छ, स्वात की घाटी नेपाल और संपूर्ण भारत की वसुधा का एक-एक कण मौर्य सम्राट अशोक ‘महान’ के स्तंभलेखों, शिलालेख में वर्णित धम्म और सदाचार की सुगंधि से सुवासित हो रहा है तथा यह कहना असंगत नहीं होगा कि इन लेखों के माध्यम से अशोक ने जहाँ अपने पुत्रों, पौत्रों, प्रपौत्रों तथा आने वाले वंशजों के लिये धरती का एक-एक कोना (जहाँ तक अशोक का राज्य था ) वसीयत कर दिया है, वहीं बौद्ध धर्म की शिक्षाओं के माध्यम से संपूर्ण विश्व को एक अनमोल एवं स्थायी सांस्कृतिक चेतना तथा सामाजिक समरसता प्रदान की है।
यदि सैंधव कालीन मुहर लेखों को छोड़ दिया जाए अशोक के ये लेख भारत के प्राचीनतम लेखों में गिने जाएंगे। यद्यपि सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक के ही हैं, जब जेम्स प्रिंसेप ने 1837 ई. में सर्वप्रथम दिल्ली- टोपरा स्तंभ लेख को पढ़ने का गौरव प्राप्त किया। सर्वप्रथम पादरी टीफेनथेलर ने 1750 ई. में अशोक के दिल्ली-मेरठ स्तंभ को खोजने में सफलता प्राप्त की।
अशोक के अभिलेख (ashok ke abhilekh)
ashok ke abhilekh: अशोक के अभिलेख प्रायः मुख्य नगरों के नज़दीक मिले या व्यापारिक मार्गों अथवा महत्त्वपूर्ण धार्मिक स्थलों के आस-पास संपूर्ण साम्राज्य में अधिक से अधिक लोगों को अशोक के धम्म से परिचित कराना ही इन अभिलेखों का उद्देश्य था। अशोक के अभिलेख निम्नलिखित चार लिपियों में पाए गए हैं-
- ब्राह्मी
- खरोष्ठी
- आरमाइक
- यूनानी
अशोक के अधिकांश लेख ब्राह्मी एवं खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण हैं। यद्यपि कुछ लेख आरमाइक तथा यूनानी लिपि में भी उत्कीर्ण कराये गए हैं। ये सभी लेख प्राकृत भाषा में लिखे गए
ashok ke abhilekh ko sarvpratham kisne khoja: जेम्स प्रिंसेप ने 1837 ई. में सर्वप्रथम दिल्ली- टोपरा स्तंभ खोजा
अशोक के अभिलेखों के प्रकार – ashok ke abhilekh prakar
ashok ke abhilekh prakar: अशोक के अभिलेखों को आकार एवं बनावट की दृष्टि से निम्नलिखित श्रेणी क्रम में विभाजित किया जा सकता है|
- वृहत् शिलालेख – वृहत् प्रस्तर – शिलाओं पर उत्कीर्ण लेख ।
- लघु शिलालेख – पत्थर की छोटी शिलाओं पर उत्कीर्ण लेख
- वृहत् स्तंभलेख – वृहत् प्रस्तर स्तंभों (खंभों) पर उत्कीर्ण लेख ।
- लघु स्तंभ लेख – छोटे स्तंभों पर उत्कीर्ण लेख ।
- गुहालेख – पहाड़ियों की गुहाओं की दीवालों पर उत्कीर्ण लेख । वृहत् शिलालेख- अशोक के चतुर्दश वृहत् शिलालेख संसार सागर के 14 रन हैं। जिनमें विश्वबंधुत्व, प्रेम, दया, करुणा, ममता, मानवता, सत्य, अहिंसा, प्यार, समानता, समरसता आदि जीवनोपयोगी मूल्यों की विशद विवेचना की गई है। ये सभी शिलालेख चौदह लड़ियों वाले माला की तरह एक दूसरे से संबद्ध हैं। वृहद् शिलालेख आठ स्थानों पर स्थित हैं- शाहबाजगढ़ी, मानसेहरा, सोपारा, गिरनार, कालसी, जौगढ़, धौली और एर्रगुड़ी।
प्रथम वृहत् शिलालेख
ashok ke abhilekh : यह धर्म लिपि ‘प्रियदर्शी राजा द्वारा अंकित कराई गई। पहले राजा की पाकशाला में बहुत प्राणी सूप के लिये मारे जाते थे, जब यह धर्म लिपि उत्कीर्ण की गई तब तीन ही प्राणी मारे जाते थे।
द्वितीय वृहत् शिलालेख
ashok ke abhilekh : देवों के प्रिय, ‘प्रियदर्शी राजा के राज्य में सर्वत्र उसके आस-पास के चोल पांड्य, सतियपुत्र केरल पुत्र एवं ताम्रपर्णी (श्रीलंका) तक तथा एटियोकस नामक यवन राजा के राज्य तक सर्वत्र मनुष्यों तथा पशुओं के लिये चिकित्सा व्यवस्था की जाएँ। मनुष्योपयोगी तथा पशु उपयोगी औषधियों तथा मूल और फल सर्वत्र रोपे जाए मार्गों पर पशुओं और मनुष्यों के उपयोग के लिये कुएँ खुदवाए गए तथा वृक्ष लगवाए गए।
तृतीय बृहत् शिलालेख
ashok ke abhilekh : ‘प्रियदर्शी राजा द्वारा राज्याभिषेक के 12 वर्ष बाद आज्ञा दी गई कि मेरे राज्य में युक्त राजुक और प्रादेशिक पाँच-पाँच वर्षों में शासन संबंधी कार्यों का दौरा करते हैं, वैसे ही धर्मानुशासन के लिये भी दौरा करें और देखें कि माता-पिता की सेवा अच्छी है। मित्रों, परिचितों, संबंधियों, ब्राह्मणों को दान दिया जा रहा है, प्राणियों की हिंसा बंद है, व्यय की अपेक्षा संचय अच्छा है, परिषद भी इस हेतु व्यंजन के अनुसार गणना की आज्ञा देगी।
चतुर्थ वृहत् शिलालेख
ashok ke abhilekh : बहुत समय बीत गया, पर प्राणी वध, हिंसा, संबंधियों के साथ अनैतिक बर्ताव तथा श्रमणों, ब्राह्मणों के साथ अनुचित बर्ताव बढ़ता गया। इसलिये प्रियदर्शी के धम्माचरण से भेरी घोष-धम्म घोष में बदल गया है, जैसा कि पहले कभी न हुआ था। आज धम्मानुशासन से जीवों को न मारा जाना, संबंधियों, ब्राह्मणों, श्रमणों के लिये उचित बर्ताव माता-पिता तथा वृद्धों की सेवा में बढ़ोतरी हुई है प्रियदर्शी राजा ने इस धर्माचरण को और बढ़ाया। प्रियदर्शी राजा के पुत्र और प्रपौत्र ने भी धर्माचरण को बढ़ाया, क्योंकि धर्मानुशासन ही श्रेष्ठ कर्म है अभिषेक के 12 वर्ष बाद देवों के प्रिय राजा ने यह लिखवाया।
पंचम वृहत् शिलालेख
ashok ke abhilekh : ‘प्रियदर्शी राजा कहता है कि कल्याण दुष्कर है, जो कल्याण का आदि कर्ता है, वह दुष्कर कार्य करता है सो मेरे द्वारा बहुत कल्याण किया गया। इसलिये जो मेरे पुत्र-पौत्र हैं तथा आगे उनके द्वारा जो मेरे वंशज होंगे, वे सदैव मेरा अनुसरण करेंगे तब वे पुण्य करेंगे, किंतु जो इसमें से वैसा नहीं करेगा वह दुष्कृत (पाप) करेगा। बहुत समय बीत गया, पहले धर्म महामात्र नहीं होते थे, सो तेरह वर्षों से अभिषिक्त मेरे द्वारा महामात्र नियुक्त किये गए है। वे सब पाखंडों पर धर्माधिष्ठान और धर्मवृद्धि के लिये नियुक्त हैं वे भृत्यों, स्वामियों, ब्राह्मणों गृहपतियों, अनाथों और वृद्धों के बीच धर्म युक्तों के हित-सुख एवं अपराध के लिये नियुक्त थे, वे पाटिलपुत्र में तथा बाहरी नगरों में मेरे भ्राताओं, बहनों तथा जो अन्य संबंधी हों, उनके अंतःपुरों पर सर्वत्र नियुक्त रहे।
षष्टम् वृहत् शिलालेख
ashok ke abhilekh : प्रियदर्शी राजा कहते हैं कि बहुत साल बीत गए, पहले सब काल में राजकार्य, प्रजा की पुकार तथा अन्य सरकारी काम का निवेदन या सूचना नहीं होती थी। मेरे द्वारा ऐसा किया गया कि भोजन करते हुए।