कथक (Kathak) का उद्भव ‘कथा’ शब्द से हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है- कथा कहना। प्राचीन समय में कथावाचक गानों के रूप में इसे बोलते थे तथा अपनी कथा को नया रूप देने के लिये नृत्य करते थे। इसी से दक्षिण भारत में कथा कलाक्षेपम/हरिकथा का रूप बना और यही उत्तर भारत में कथक के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
कथक नृत्य (Kathak Nritya)
कथक नृत्य (Kathak Nritya) उत्तर भारत का प्रसिध्द नृत्य है। इसे शास्त्रीय नृत्य के अंतर्गत शामिल किया जाता है प्राचीन काल मे कथक को ‘नटवरी नृत्य’ या कुशिलव के नाम से जाना भी जाता था। यह नृत्य की सबसे प्राचीनतम शैलीयों मे से एक है क्योंकि इस नृत्य का महाभारत में भी वर्णन मिलता है। तथा मध्य काल में इसका सम्बन्ध भगवान कृष्ण के कथा और नृत्य से भी माना जाता है.
कथक नृत्य उत्तर प्रदेश की ब्रजभूमि की रासलीला परंपरा से जुड़ा नृत्य है तथा इस नृत्य के केंद्र में राधा-कृष्ण की अवधारणा मौजूद है। इस नृत्य का जन्म उत्तर भारत में हुआ. कत्थक शास्त्रीय नृत्य का एकमात्र रूप है जो हिंदुस्तानी या उत्तर भारतीय संगीत से संबंधित है। यह नृत्य कहानियों को बोलने का साधन है।
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कथक नृत्य शैली (Kathak Nritya Shaili)
कथक नृत्य की खास विशेषता इसके पद संचालन एवं घिरनी खाने (चक्कर काटने) में है। इसमें घुटनों को नहीं मोड़ा जाता। इसमें हस्तमुद्राओं तथा पद-ताल पर अधिक ध्यान दिया जाता है, जो नृत्य को प्रभावी बनाता है। कथक नृत्य को ध्रुपद एवं ठुमरी गायन के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।
कथक नृत्य शैली के दौरान एक एकल कथाकार (कथा कहने वाला) या नर्तक (डांस करने वाला) छंदों का पाठ करना शुरु करता है फिर उसके बाद शारीरिक गतिविधियों के द्वारा उनका प्रदर्शन करता है। इस प्रदर्शन मे पैरों की गति पर विशेष ध्यान दिया जाता है साथ ही नर्तकियों द्वारा शरीर की गति को कुशलता से नियंत्रित किया जाता है और सीधे पैरों से प्रदर्शन किया जाता है।
कथक के घराने (Kathak Nritya ke Gharane)
कथक नृत्य शैली को संगीत के कई घरानों का समर्थन मिला, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है
जयपुर घराना
- कथक के जयपुर घराने में नृत्य के दौरान पाँव की तैयारी, अंग संचालन एवं नृत्य की गति पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
- इस घराने से संबंधित गुरुओं- नृत्याचार्य गिरधारी महाराज एवं श्रीमती शशि मोहन गोयल ने अपनी मेहनत के जरिये इस नृत्य परंपरा को बनाए रखा।
- इनके अतिरिक्त उमा शर्मा, प्रेरणा श्रीमाली, शोभना नारायण, राजेंद्र गंगानी ने जयपुर घराने को शीर्ष पर पहुँचाने का कार्य किया।
लखनऊ घराना
- इस घराने से संबंधित नृत्य पर मुगल प्रभाव के कारण नृत्य में शृंगारिकता के साथ ही अभिनय पक्ष पर भी विशेष जोर दिया जाता है।
- श्रृंगारिकता एवं सबल अभिनय की दृष्टि से यह घराना अन्य घरानों से काफी आगे है।
- इस घराने को प्रसिद्धि दिलाने का श्रेय पंडित लच्छू महाराज एवं पंडित बिरजू महाराज को जाता है। Th
बनारस घराना
- बनारस घराना, जयपुर घराने के समकालीन माना गया है। इस घराने में गति एवं शृंगारिकता के स्थान पर प्राचीन शैली पर जोर दिया जाता है।
- बनारस घराने की प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना सितारा देवी के पश्चात् उनकी पुत्री जयंतीमाला ने इसके वैभव एवं छवि को बरकरार रखने का प्रयास किया है।
रायगढ़ घराना
- अन्य घरानों की तुलना में यह घराना नया है। इस घराने की स्थापना जयपुर घराने के पंडित जयलाल, पंडित सीताराम प्रसाद, हनुमान प्रसाद तथा लखनऊ घराने के पंडित अच्छन महाराज, पंडित शंभू महाराज एवं पंडित लच्छू महाराज ने रायगढ़ के महाराजा चक्रधर सिंह के आश्रय में की थी।
- इस घराने ने बहुत कम समय में ही ख्याति अर्जित की तथा इसे लोकप्रिय बनाने में पंडित कार्तिक राम एवं उनके पुत्र पंडित रामलाल का योगदान उल्लेखनीय है।
- रायगढ़ घराने के कथक में लखनऊ एवं जयपुर की मिश्रित शैली का उपयोग किया जाता है। यहाँ साज-सज्जा जयपुर घराने जैसी है तथा भाव प्रदर्शन एवं खूबसूरती लखनऊ घराने से प्रेरित है।
कथक नृत्य का इतिहास ( History of Kathak Dance)
कथक उत्तर भारत का प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य है, जिसकी जड़ें प्राचीन कथावाचकों में हैं। ‘कथा’ शब्द से उत्पन्न यह शैली महाभारत काल से चली आ रही है और मध्य काल में इसका सम्बन्ध भगवान कृष्ण और राधा के साथ भी रहा है। क्योकि इसमें राधा-कृष्ण की अवधारणा केंद्रीय है। कथक नृत्य बोलने की कला से जुड़ा हुआ नृत्य है इसके प्रमुख घरानो मे जयपुर, लखनऊ, बनारस और रायगढ़ आदि शामिल हैं।
कथक नृत्य (Kathak Nritya) को ‘नटवरी नृत्य’ के नाम से भी जाना जाता है। मुगलों के आगमन के पश्चात् यह नृत्य दरबार में पहुँचा तथा इसके पश्चात् इस नृत्य में धर्म की अपेक्षा सौंदर्यबोध पर अधिक बल दिया जाने लगा। अवध के नवाब वाज़िद अली शाह के समय ठाकुर प्रसाद एक उत्कृष्ट नर्तक थे, जिन्होंने नवाब को नृत्य सिखाया तथा ठाकुर प्रसाद के तीन पुत्रों- बिंदादीन, कालका प्रसाद एवं भैरव प्रसाद ने कथक को लोकप्रिय बनाया। आगे चलकर कालका प्रसाद के तीन पुत्रों- अच्छन, लच्छू तथा शंभू ने इस पारिवारिक शैली को आगे बढ़ाया।
19वीं सदी में अवध के अंतिम नवाब वाज़िद अली शाह के संरक्षण के तहत इसका स्वर्णिम रूप देखने को मिलता है। भारत के शास्त्रीय नृत्यों में केवल कथक का ही संबंध मुस्लिम संस्कृति से भी रहा है।